
उत्तराखंड की इस पवित्र भूमि में आदि शंकराचार्य जी को मोक्ष सिद्धि प्राप्त हुई थी। शंकराचार्य जी अपने शिष्य मंडली के साथ उत्तराखंड की यात्रा में जिस समय जोशीमठ पहुंचे, तो उस क्षेत्र के नरेश ने भक्ति पूर्वक उनका स्वागत किया। इतिहासकारों का मानना है, कि गढ़वाल के परमार राज्य वंश के संस्थापक कनकपाल उस समय यहां के नरेश थे, जिनके अंतर्गत यह राज्य आता था।
नरेश कनकपाल के आग्रह पर आदि शंकराचार्य द्वारा कुछ समय के लिए यहां निवास किया था। श्री बद्रीनाथ जी की यात्रा में नरेश कनकपाल शंकराचार्य जी की सेवा में रहे। बद्रीनाथ क्षेत्र से जब आदि शंकराचार्य जी ने त्रिजुगीनारायण के रास्ते होते हुए गंगोत्री की यात्रा की उस समय भी गढ़वाल नरेश कनकपाल आचार्य जी के साथ रहे।
गंगोत्री धाम में शंकराचार्य जी की इच्छानुसार, भगवती गंगा माँ की मूर्ति एवं भगवान भोलेनाथ के शिवलिंग को आदि शंकराचार्य जी के हाथों से ही प्रतिष्ठित करवाकर नरेश कनकपाल ने मंदिर निर्माण का समुचित प्रबंध भी किया था।
गढ़वाल नरेश कनकपाल उत्तरकाशी तक आदि शंकराचार्य जी की सेवा में रहे तथा उत्तरकाशी पहुंचने पर जब अपनी राजधानी लौटने की आज्ञा मांगी, तो आचार्य शंकराचार्य जी ने नरेश कनकपाल को आशीर्वाद देकर, इस उपदेश के साथ विदा किया, कि वह समस्त उत्तराखंड में वैदिक धर्म के पुनर्स्थापन कार्य को अपना परम कर्तव्य मानकर इस पुण्य कार्य में लग जाएं।
इस आदेश को नरेश कनकपाल ने अपना धर्म कर्तव्य समझ कर भक्ति पूर्वक पालन किया। जिस कारण सनातन हिंदू धर्मानुसार आगे चलकर नरेश कनकपाल राजवंश की राजगद्दी को बद्रीनाथ की पवित्र गद्दी के रूप में मानयता मिली। कालान्तर में गढ़वाल के राजा को ‘बोलंदा बदरी’ भी इसलिए कहा जाता था, क्योंकि वह बद्रीनाथ के प्रतिनिधि के रूप में बैठा हुआ शासन तंत्र चलाता था।
उत्तरकाशी के आध्यत्मिक वातावरण में आदि शंकराचार्य जी विशेष आनंद का अनुभव करते थे। तथा शंकराचार्य जी को आध्यात्मिक प्रतिभा की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति इसी पवित्र शिव नगरी उत्तरकाशी में हुई थी।
आदि शंकराचार्य जी के बाल्यकाल की भविष्यवाणी के अनुसार, उनकी मृत्यु 16 वर्ष की आयु में होना विधाता द्वारा तय था। उत्तरकाशी प्रवास के समय शंकराचार्य जी ने अपनी 16 वर्ष की आयु में प्रवेश किया था और उसी आयु में उन्हें स्वर्ग लोक सिधारना था।
परम दिव्य नगरी भगवान शिव की आधी काशी (उतरकाशी) में अपने अलौकिक जीवन के विसर्जन के लिए भगवान शिव के अवतार आदि शंकराचार्य जी अपनी देह त्यागने के लिए तैयार होने लगे। उसी समय जब एक दिन प्रातः काल आचार्य शंकराचार्य जी अपने शिष्यों को अध्ययन करा रहे थे, तो एक वृद्ध ब्राह्मण के रूप में महर्षि वेदव्यास स्वयं उस स्थान पर पहुंचे , और शंकराचार्य जी को अपने साथ शास्त्रार्थ करने के लिए आमंत्रित किया।
आठ दिनो तक दोनों महाज्ञानी आचार्यो के मध्य महत्वपूर्ण शास्त्रार्थ चला। अंत में महर्षि वेदव्यास जी ने प्रसन्न होकर अपना सही रूप धारण करते हुए शंकराचार्य जी के मस्तक पर हाथ रखकर उन्हें आशीर्वाद और उनकी आयु में 16 वर्ष की वृद्धि का वरदान दिया।
इसके पश्चात महर्षि वेदव्यास जी ने शंकराचार्य जी को आज्ञा दी, कि वह भारत के एक राज्य से दूसरे राज्य में भ्रमण करे तथा शास्त्रार्थ में प्रकांड आचार्यो को परास्त करके हिन्दू धर्म तथा ब्रह्मांड विज्ञान की प्रतिष्ठा को इस बढ़ी हुई 16 वर्ष की आयु (32 वर्ष) के अंदर समस्त भारतवर्ष में स्थापित कर के भगवान शिव में लीन हो जाए।
शंकराचार्य जी द्वारा महर्षि वेदव्यास की इस आज्ञा का पूर्णतय पालन किया तथा उत्तरकाशी से अपनी यह दिग्विजय यात्रा प्रारंभ की। उस काल के महान आचार्य कुमारिल भट्ट, मंडन मिश्र, मुरारी मिश्र आदि को शास्त्रार्थ में परास्त कर अखंड भारतवर्ष में वेदांत की संजीवनी मंत्र ध्वनि द्वारा हिंदू धर्म में नवीन चेतना का संचार कर के अपनी दिग्विजय यात्रा पूर्ण करते हुए आचार्य शंकराचार्य जी पुनः उत्तराखंड लौट आए।
अपने मनुष्य जीवन की 32 वर्ष की आयु समाप्त होते समय शिवाअवतार आदि शंकराचार्य स्वधाम केदारनाथ पुरी में जाकर समाधि योग द्वारा आत्म स्वरुप में लीन हो गए।