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नव सृजन की नींव “स्त्री”
दो बुद्धजीवी प्राणी इस धरातल में,
स्त्री और पुरूष के नाम से जाने जाते हैं,
साथ होकर भी साथ नहीं,
क्यूँ प्रकृति का संतुलन बनाकर रख नहीं पाते हैं,
वेदना सदैव स्त्री के हिस्से में,
संवेदना क्यों कोई नहीं जताना चाहते हैं,
कभी पुत्र तो कभी पति को चुनो,
इस दुविधा में हर बार,
उन्हें ना जाने क्यों फँसाते हैं,
खुले आसमाँ में स्वतंत्र उड़ने दिया नहीं जाता,
मर्यादा के बंधन में रहना क्यूँ हर बार सिखाते हैं,
परायी हो तुम परायी घर से आयी हो कहते हो,
आशियाना है आखिर कहाँ कोई नहीं बताते हैं,
सम्मान की तालीमें देकर उन्हें,
लज्जित घूर-घूरकर देखने से कर जाते हैं,
सिर्फ़ जिस्म नोचकर ही नहीं जनाब,
लफ़्ज़ों से भी बलात्कार लोग कर आते हैं,
जुड़ा हुआ है सम्मान स्त्री पुरुष का,
आओ मिलकर हक उनके नाम कराते हैं,
भव्य प्रकृति का सृजन अब,
क्यों ना आपसी साझेदारी से हम कर जाते हैं।
– रूही