गौरा देवी को मरणोपरांत भारत रत्न देने की मांग,(फोटो साभार: news18)
संसद के शीतकालीन सत्र के दौरान लोकसभा और राज्यसभा की कार्यवाही जारी है। इसी क्रम में उत्तराखंड के राज्यसभा सांसद महेंद्र भट्ट ने चिपको आंदोलन की अग्रणी स्वर और प्रेरणा रही गौरा देवी को भारत रत्न देने की मांग की है। सांसद महेंद्र भट्ट ने राज्यसभा में चिपको आंदोलन का इतिहास बताते हुये गौरा देवी के बलिदान को याद किया।
जानकारी के अनुसार, भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष एवं राज्यसभा सांसद महेंद्र भट्ट ने राज्यसभा की कार्यवाही के दौरान चिपको आंदोलन की प्रेरणा गौरा देवी को मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित करने की मांग की है। राज्यसभा सांसद ने संसद को बताया, गौरा देवी उत्तराखंड के सीमांत चमोली जोशीमठ विकासखंड के रैणी गांव की भोटिया जनजाति की ग्रामीण महिला थी।
उन्होंने बताया, गौरा देवी ने अपने जीवनकाल में पर्यावरण संरक्षण के लिए चिपको आंदोलन की शुरुआत की। चिपको आंदोलन हिमालयी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पेड़ों की कटाई के खिलाफ मातृशक्ति का वृक्षों के आलिंगन से जुड़ा एक बड़ा आंदोलन था। इस आंदोलन को 51 वर्ष पूर्ण हो चुके हैं। राज्यसभा सांसद ने कहा, पर्यावरण बचाने का यह आंदोलन 26 मार्च 1973 को सीमांत क्षेत्र में शुरू हुआ था।
आज राज्यसभा में विशेष उल्लेख के दौरान केंद्र सरकार से चिपको आंदोलन की अग्रणी स्वर और प्रेरणा रही स्वर्गीय गौरा देवी को भारत रत्न देने की मांग की। pic.twitter.com/pEIi8i1Wo9
— Mahendra Bhatt (@mahendrabhatbjp) December 2, 2025
राज्यसभा सांसद ने संसद में कहा, चिपको आंदोलन ने देश में पर्यावरण संरक्षण को बड़ा मुद्दा बनाया। यह आंदोलन हिमाचल, कर्नाटक, राजस्थान और बिहार राज्यों तक फैला। इस आंदोलन के परिणाणस्वरुप ही तत्कालीन भारत सरकार ने 15 वर्षों तक हिमालयी राज्यों में पेड़ कटान पर पूर्णरुप से प्रतिबंधित किया। चिपको आंदोलन गौरा देवी के संघर्षों की कहानी है।
बता दें, कि गौरा देवी ने 1970 में चमोली के रैणी गांव में चिपको आंदोलन का नेतृत्व किया, उन्होंने 2400 पेड़ कटने से बचाए। उन्हें ‘चिपको आंदोलन की जननी’ भी कहा जाता है। सत्तर के दशक में जब गांव के पेड़ काटने के लिए मजदूर आए, तब गांव में कोई भी पुरुष मौजूद नहीं था। उस वक्त गौरा देवी ने महिलाओं का नेतृत्व किया और वे सब मिलकर पेड़ों से चिपक गईं।
गौरा देवी ने मजदूरों से कहा, ‘अगर इन पेड़ों को काटना है, तो पहले हमें काटना पड़ेगा।’ उन्होंने पेड़ कटाने वाले मजदूरों को ऐसे ही कई दिनों तक रोके रखा। महिलाओं के साहस को देखकर मजदूर पीछे हट गए और बिना पेड़ काटे वापस चले गए। पेड़ों से चिपक कर पर्यावरण संरक्षण की इस मुहिम को चिपको आंदोलन कहा गया।

