
गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी लोकभाषा पाठ्यक्रम में शामिल,(तस्वीर साभार: सोशल मीडिया)
उत्तराखंड हिमालय का पवित्र प्रांगण प्राचीन काल से ही विश्वमानस के लिए आध्यात्मिक एवं नैसर्गिक सौंदर्यानुभूति का केंद्र स्थल रहा है। उत्तराखंड की संस्कृति अपनी एक अलग पहचान रखती है। यहाँ के समाज का व्यवहार, परिधान, संगीत, नृत्य तथा अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की विशिष्ट जीवन शैली है। इसी क्रम में उत्तराखंड की धामी सरकार ने राज्य की लोक संस्कृति से स्कूली छात्रों को जोड़ने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाया है।
मीडिया रिपर्ट्स के अनुसार, उत्तराखंड की लोक भाषा गढ़वाली, कुमाऊंनी व जौनसारी को स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जायेगा। स्टेट काउंसिल आफ एजुकेशनल रिसर्च एंड ट्रेनिंग (एससीईआरटी) ने इस संबंध में पाठ्यचर्या (Curriculum) तैयार कर लिया है। प्रथम चरण में गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी लोक भाषा से संबंधित पाठ्य पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। जबकि दूसरे चरण में अन्य लोक भाषाओं को भी चरणबद्ध तरीके से पाठ्यक्रम में शामिल किया जाएगा।
शनिवार को ननूरखेड़ा स्थित निदेशक अकादमिक शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान में पांच दिवसीय कार्यशाला के समापन दिवस पर निदेशक वंदना गर्ब्याल ने मीडिया को बताया, कि उत्तराखंड की लोक भाषा यहां की सांस्कृतिक धरोहर का हिस्सा हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 बुनियादी स्तर पर बच्चों को सीखने-सिखाने के लिए मातृभाषा के माध्यम की बात करती है। इसी संदर्भ में पहले चरण में कक्षा एक से पांच तक के लिए पाठ्य पुस्तकें तैयार की जा रही हैं। इस पर राज्य स्तरीय पाठ्यचर्या आयोजित की जा चुकी है।
दैनिक जागरण की रिपोर्ट के अनुसार, एससीईआरटी के अपर निदेशक अजय कुमार नौडियाल ने कहा, कि लोक भाषाओं में पाठ्य पुस्तकें शामिल करने से स्कूली बच्चों को अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ने का अवसर प्राप्त होगा। इससे छात्रों का साहित्यिक प्रतिभा का विकास भी होगा। उन्होंने लोक भाषाओं के विलुप्त होने के प्रति चिंता जाहिर करते हुए कहा, कि यह पुस्तकें बच्चों को अपनी लोक भाषाओं से जोड़ने में सहायक होंगी।
उत्तराखंड की लोक भाषाओ को स्कूली पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने पर संयुक्त निदेशक आशा रानी पैन्यूली ने कहा, कि लोक भाषा आधारित पाठ्य पुस्तकों के पाठ्यक्रम का हिस्सा होने से बच्चों में सांस्कृतिक संवेदनशीलता का विकास होगा। उनमें मातृभाषा में विचारों को व्यक्त करने की स्पष्टता आएगी। सहायक निदेशक डा. कृष्णानंद बिजल्वाण ने कहा, कि पुस्तक की पाठ्य सामग्री आकर्षक और रुचिकर होनी चाहिए।
लोक भाषा आधारित शैक्षिक पुस्तकों को लिखने का कार्य में गढ़वाली भाषा के विशेषज्ञ डा. उमेश चमोला, कुमाऊंनी के लिए डा. दीपक मेहता, जौनसारी के लिए सुरेंद्र आर्यन अपना योगदान दे रहे हैं। कक्षावार पुस्तकों के लेखन के लिए समन्वयक के रूप में डा. अवनीश उनियाल, सुनील भट्ट, गोपाल घुघत्याल, डा. आलोक प्रभा पांडे और सोहन सिंह नेगी कार्य कर रहे हैं।
गढ़वाली भाषा के लेखक मंडल में गिरीश सुंदरियाल, धर्मेंद्र नेगी, संगीता पंवार और सीमा शर्मा, कुमाऊंनी भाषा के लेखक मंडल में गोपाल सिंह गैड़ा, रजनी रावत, डा. दीपक मेहता, डा. आलोक प्रभा व बलवंत सिंह नेगी शामिल है। जौनसारी भाषा लेखन मंडल में महावीर सिंह कलेटा, हेमलता नौटियाल, मंगल राम चिलवान, चतर सिंह चौहान व दिनेश रावत ने योगदान दिया।