गोवर्धन पूजा
दीपावली के दिव्य पर्व के बाद कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा तिथि को गोवर्धन पूजा का विशेष महत्व हैं। भारत जैसे कृषि प्रधान राष्ट्र में भूमि पुत्र किसानों के लिए अपने घरो में पलने वाली गायों का महत्वपूर्ण स्थान है। वैदिक काल से कृषक गाय का विशेष ध्यान रखते थे। उन्हें यह ज्ञान था, कि गाय है, तो खेती-बाड़ी है। इस कारण गांव में हर व्यक्ति धन-धान्य था, सर्वदा सुख-संपदा थी।
इसी कारण सनातन धर्म में गाय की पूजा का विशेष स्थान है। वहीं विद्यालय में पड़ने वाले छात्रों के लिए छोटी कक्षाओं में होली, दीपावली जैसे पर्वो के साथ ही गाय पर निबंध लिखना परीक्षाओं में हमेशा से ही महत्वपूर्ण प्रश्न था।
उल्लेखनीय है, कि देवभूमि उत्तराखंड के ग्रामीण क्षेत्रों में गोवर्धन पूजा को बदराज कहते है। इसका अर्थ बैलों की पूजा होता था। बचपन की स्मृतियों में हमारे गांव के घरों में बैलो के मस्तक पर तिलक लगाकर नई माला, घंटियाँ पहनाते थे, फूल मालाएँ पहनाते थे, उन्हें खूब सजाया जाता था तथा बैलो को गुड़ चने एवं विभिन पकवान खिलाये जाते थे पर इस दिवस पर उनसे कोई कार्य नहीं लिया जाता था, न कोई उन्हें मारता था।
वहीं दीवाली की शुरुआत ही पशुओं की पूजा से होती थी, छोटी दीवाली को ‘गौ-पिंडू’ कहते थे। उस दिन गायों के लिए पिंडा (पौष्टिक आहार) पकाया जाता था और उसकी पूजा करके उसे खिलाते थे। किंतु आधुनिकता की दौड़ में आज भारत जैसे कृषि प्रधान राष्ट्र में ये कैसी गोधन पूजा है आज समाज गाय-बैल का पालन नहीं कर रहा है। राजमार्गो पर पशु लावारिस छोड़े जा रहे है।
कुछ समय से हमारी कॉलोनी में गाय का एक छोटा सा बछड़ा किसी गाय पालक ने लाके छोड़ दिया। वह बछड़ा अभी घास भी ठीक से नहीं खा पाता, दूध पीता छोटा बच्चा है, भूख से सूख के कांटा हो गया है, लोग रोटी दे रहे हैं, जिस कारण वह अभी जीवित है। ऊपर से सर्दी का प्रकोप बढ़ गया है। वह बछड़ा दिन भर तो गलियों में इधर-उधर भटक कर खाना मांगता रहता है, परन्तु शाम होते ही माँ-माँ चिल्लाता हुए अपनी माँ को ढूंढता रहता है।
वहीं आज हाईवे पर लावारिश पशुओं के कारण एक्सीडेंट होते रहते है, जिस कारण मनुष्यों के साथ इन पशुओं का जीवन भी संकट में पड़ जाता है। पहाड़ी शहरों-कस्बों में पहले गाय ही लावारिस घूमती रहती थी, किंतु वर्तमान में सड़को पर बैल भी घूम रहे हैं, क्योंकि वर्तमान में खेती में कोई रूचि नहीं ले रहा है। इसके साथ ही सरकार द्वारा किसानों को पोर्टेबल ट्रैक्टर बांट दिए गए है, इस स्थिति में बैल का पालन कौन करे।
इसके अलावा वर्तमान परिस्थिति में घर में बेटी के विवाह या किसी की मृत्यु पर गौदान करने के लिए गाँव में गाय नहीं मिलती है। पिछले वर्ष किसी परिचित की बेटी के विवाह में गाँव जाना हुआ था। तो यह देखकर आश्चर्य हुआ, कि गौदान के लिए गाय पड़ोस के गांव से उधार में लायी गयी थी।
सनातन धर्म में किसी के घर में संतान होने पर अथवा किसी की मृत्यु होने पर शुद्धिकरण हेतु गोमूत्र चाहिए, तो वह भी आसानी से प्राप्त नहीं होता है। उसके लिए दुकान पर उपलब्ध शीशी पर पैकिंग वाला गौमूत्र खरीदना पड़ता है, जबकि पूजन में वह ताजा ही मान्य है।
वहीं राज्य सरकारों द्वारा शहरों में एक कांजी हाउस बनाकर अपनी जिम्मेदारी से इतिश्री कर ली है। हमें दीपावली में चंद पटाखों के विषय में तो बड़ी चिंता है। किंतु माता तुल्य गाय और भगवान शिव के गण बैल के लिए चिंता नगण्य है। शायद अब वह दिन दूर नहीं जब अन्य देवी देवताओं की ही भाँति गाय और बैल की भी मूर्तियों या चित्रों की पूजा-अर्चना की जाएगी।

